मौजूदा आम चुनाव बेशक कुछ सियासी चेहरों के इर्द गिर्द सिमट गया लेकिन इस बीच भ्रष्टाचार, महंगाई, बेरोज़गारी, महिलाओं की सुरक्षा, विकास और सुशासन जैसे शब्द भी बार-बार सुनाई पड़े. लेकिन क्या जाति के आधार पर होने वाले भेदभाव को ख़त्म करना टीवी पर होने वाली चुनावी बहसों और राजनीतिक घोषणापत्रों का हिस्सा है. इसी भेदभाव को दलित अपने सामाजिक, शैक्षिक और आर्थिक उत्थान और विकास के लिए सबसे बड़ी बाधा मानते हैं. आजादी के सालों बाद यह सच्चाई आज तक कायम है. लेकिन अपनी बहस में जातिगत भेदभाव पर बहस करने वाले लोग जमीन पर इस भेदभाव को खत्म करने की दिशा में कोई पहल नहीं करते हैं. जाति की मुख्यधारा से जातिगत भेदभाव आज तक मुद्दा नहीं बन पाया है.
दिल्ली के जवाहर लाल नेहरु विश्वविद्यालय में एसोसिएट प्रोफ़ेसर विवेक कुमार कहते हैं कि दलित एजेंडा भारतीय राजनीति के फ़लक से बीते दस साल में ग़ायब हो गया है. वो कहते हैं, “यूपीए सरकार के शासनकाल में सच्चर कमिटी की ख़ूब चर्चा रही कि सबसे पिछड़े मुस्लिम समुदाय के लोग हैं. खूब बयान आए. वहीं दलित समाज ने प्रोन्नति में आरक्षण मांगा तो वो नहीं मिला.” प्रो. विवेक के मुताबिक, 20 करोड़ की आबादी और लोकसभा और राज्य विधानसभाओं में आरक्षित 15 प्रतिशत सीटों पर चुने जाने वाले सदस्य किसी भी राजनीतिक पार्टी का भाग्य बदल सकते हैं, बावजूद इसके दलितों का बड़ा तबक़ा अपना भाग्य नहीं बदल पाया है. इसी तरह राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग के अध्यक्ष पीएल पुनिया कहते हैं कि दलितों को आगे बढ़ाने के लिए किए गए प्रयासों के बावजूद उनकी बुनियादी समस्याएं अब भी बनी हुई हैं. उनके अनुसार, “आज भी दिल्ली जैसे शहर में शिकायत मिलती है कि दलित समुदाय के दुल्हे को घोड़ी पर नहीं चढ़ने दिया गया, ओडिशा में दलितों को मंदिर में प्रवेश नहीं करने दिया जाता है, कर्नाटक और तमिलनाडु में ग्रामीण इलाक़ों के होटलों पर अनुसूचित जाति के लोगों के लिए अलग से बर्तन रखे जाते हैं. तो स्थिति तो ख़राब है.”पुनिया कहते हैं कि कुछ समय पहले जब प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने राष्ट्रीय एकता परिषद की बैठक में कहा कि सामाजिक और आर्थिक ग़ैर-बराबरी भारत के लिए चुनौती है तो पुनिया ने उन्हें याद दिलाया कि ठीक यही शब्द डॉ. अम्बेडकर ने 26 नवंबर 1949 को संविधान सभा की बैठक में कहे थे.तो फिर बदला क्या. पुनिया कहते हैं कि कांग्रेस ने चूंकि सबसे ज़्यादा समय तक राज किया है, इसलिए जो भी दलितों के लिए अब तक काम हुए हैं, उनका श्रेय कांग्रेस को जाता है.
वो यूपीए के दौर में रोज़गार गारंटी योजना, खाद्य सुरक्षा योजना, आवास योजना और स्वास्थ्य योजना समेत ग़रीबों के लिए चलने वाली कई योजनाएं गिनाते हैं. लेकिन इस बात से वो भी इनकार नहीं करते कि दलितों की मौजूदा स्थिति से संतुष्ट नहीं हुआ जा सकता है. इसी का एक दूसरा पहलू यह भी है कि अगर अब तक दलितों की स्थिति में ज्यादा परिवर्तन देखने को नहीं मिले हैं तो उसके लिए भी ज्यादातर समय तक देश की सत्ता पर रहने वाली कांग्रेस ही है. ये बात सही है कि आरक्षण के फ़ायदों से दलितों में भी एक संपन्न तबक़ा पैदा हुआ है जिसे क्रीमी लेयर का नाम दिया जाता है. लेकिन आरक्षण का फ़ायदा समूचे वर्ग को न मिलकर कुछ ही जातियों तक सीमित रहा है. आज़ादी के बाद से दलितों में लगातार राजनीतिक चेतना बढ़ी है, जिसका सबसे बड़ा श्रेय डॉ. अंबेडकर को जाता है. डॉ. अंबेडकर सामाजिक व्यवस्था में बदलाव के लिए सत्ता में हिस्सेदारी के पैरोकार थे. निर्विवाद रूप से आधुनिक दौर में डॉ. अंबेडकर दलितों के सबसे बड़े नेता हैं.मौजूदा दौर की चुनावी राजनीति में दलित बड़े वोट बैंक के रूप में हर पार्टी के लिए आकर्षण का केंद्र हैं. बावजूद उसके दलित एजेंडा राजनीति से ग़ायब क्यों है. प्रोफ़ेसर विवेक कुमार कहते हैं,
“इतने बड़े समुदाय को साथ लिए बिना आज राजनीति नहीं हो सकती है. इसीलिए भारतीय जनता पार्टी ने भारतीय रिपब्लिकन पार्टी के रामदास अठावले, एलजेपी के रामविलास पासवान और उदित राज जैसे दलित नेताओं को साथ लिया है, लेकिन अपना दलित एजेंडा घोषित किए बिना.” दूसरी तरफ़ कांग्रेस में पीएल पुनिया के अलावा मीरा कुमार, सुशील कुमार शिंदे, कुमारी शैलजा और मुकुल वासनिक जैसे नेता पार्टी का चेहरा हैं. लेकिन दलित राजनीति का सबसे मुखर और लोकप्रिय नाम इस समय मायावती हैं. फिर भी इन सभी नेताओं में कोई ऐसा अकेला नाम नहीं है जिसके साथ पूरे देश के दलित ख़ुद को जोड़ते हों. नागपुर यूनिवर्सिटी में पढ़ने वाले तुषार कांबले कहते हैं कि दलित युवा बहुत दुविधा में है कि वो किसे वोट दें. वो कहते हैं, “युवाओं को देखा जाए तो हमें एक ढंग का नेता नहीं मिल रहा है, जिससे ये उम्मीद लगाएं कि वो हमारे लिए कुछ करेगा. इसलिए दुविधा है कि वोट देंगे तो देंगे किसको.” इसी यूनिवर्सिटी में पढ़ने वाली वंदना कहती हैं, “एक ही हमारे नेता थे बाबा साहेब अंबेडकर. उनके बाद ऐसा हमारा कोई नेता नहीं आया.”
इतने बड़े समुदाय की ये निराशा और उसकी मौजूदा सामाजिक और आर्थिक स्थिति कई सवाल उठाते हैं जो उनसे जुड़े हैं राजनीति से लेकर सामाजिक सरोकारों तक.
Written By:
Omprakash Jawara
Chief Capital Youth Bridged (CYB) of Rajasthan Sangh.