गौर से सुनो मेरी जुबानी,
आज की सुबह बहुत सुहानी,
फिर से तैयार में हो गया,
रोजाना की यही कहानी।
माता पिता का आर्शीवाद लेना,
पत्नि का प्यार से टिॅिफन देना,
बच्चो का वो चिल्लाना,
पापा शाम को जल्दि आना।
घर से आॅफिस के बिच दूरी,
पुरे तीस किलोमीटर है,
सुरज ऐसे जल रहा है,
मानो जेसे कोई हीटर है,
पुरे दिन की भाग दौड़,
आॅफिस इतना सारा काम,
बच्चो कि सुनकर आवाज,
उतर जाती हे पुरी थकान,
बीवी पुछे की कितना कमाया,
पिता पुछे कितना बचाया,
बात करूँ में क्या ममता की,
माता पुछे बेटा कुछ खाया ?
दिन डल गया, रात डल गयी,
फिर आई एक सुबह सुहानी,
फिर से तैयार में हो गया,
रोजाना की यही कहानी।
सर पर पहमा हेलमेट थे,
तापमान था कुछ बत्तिस,
धीरे बाईक से जा रहा था,
रफ्तार मरी थी चालीस।
पता नहीं क्या हुआ अचानक,
पेरो तले जमीन हट गई,
ना जाने किसने टक्कर मारी,
दुर्घटना पल में घट गई।
आँखे खुली तो देखा मेंने,
लोगों का काफिला दिख रहा था,
लावारिस सड़क पर पड़ा में
खुन मंे लत-पथ चिख रहा था।
देखकर ऐसी हालत में भी,
नजर अन्दाज सब करते गये,
ना जाने कितने भारतवासी,
सड़को पे ऐसे मरते गये।
नदी के तट की तरह ही ,
परिवार का में किनारा हूँ,
चला गया तो क्या होगा,
उनका एक लौता सहारा हूँ।
कुछ तो दया करलो मुझ पर,
इन्तजार कोई कर रहा है,
उनको तो ये पता भी नहीं,
उनका अपना ऐसा मर रहा ह।
खुन से लत-पथ धुप में,
ऐसे सड़को पर लेटा हूँ,
दर्द मेरा खत्म अब हो गया,
जिन्दगी से इज्जत लेता हूँ।
देखो कलयुग का चेहरा,
जनता ऐसा भी करती हैै,
भारत जेसे देश में भी,
इंसानियत ऐसे मरती है।
सड़को पर युँ तड़प- तड़प् कर,
इंसान जिन्दगी खो सकता है,
सोचो अगर मंे हूँ आज तो,
कल को तु भी हो सकता है।
Thanks and Regards,
written by:
Deepak Agrawal (Mechanical Engineer)
Ahmedabad, Gujarat, India