आपने कई बार लोगों को यह कहते सुना होगा कि “अगर इंसान चाहे तो वह पहाड़ को भी हिला कर दिखा सकता है” .और आज हम आपको ऐसे ही व्यक्ति से रूबरू करा रहे हैं जिन्होंने अकेले दम पर सच-मुच पहाड़ को हिला कर दिखा दिया है.
पर्वत भी नतमस्तकयह कहानी है दशरथ मांझी नाम के एक गरीब आदमी की.दशरथ मांझी का जन्म १९३४ में बिहार के गेलहर गॉंव में एक बहुत गरीब परिवार में हुआ. वे बिहार केआदिवासी जनजाति में के बहुत निम्न स्तरीय मुसाहर जनजाति से है. उनकी पत्नी का नामथा फाल्गुनी देवी. दशरथ मांझी के लिए पीने का पानी ले जाते फाल्गुनी देवी दुर्घटना की शिकार हुई. उसेतुरंत डॉक्टरी सहायता नहीं मिल पाई. शहर उनके गॉंव से ७० किलोमीटर दूर था. वहॉं सब सुविधाए थी.लेकिन वहॉं तक तुरंत पहुँचना संभव नहीं था. दुर्भाग्य से वैद्यकीय उपचार के अभाव मेंफाल्गुनी देवी की मौत हो गई.
ऐसा प्रसंग किसी और पर न गुजरे, इस विचार ने दशरथमांझी को पछाड़ा. समीप के शहर की ७० किलोमीटर की दूरी कैसे पाटी जा सकती है इस दिशा मेंउनका विचार चक्र चलने लगा. उनके ध्यान में आया कि, शहर से गॉंव को अलग करने वाला पर्वतहटाया गया तो यह दूरी बहुत कम हो जाएगी. पर्वत तोडने के बाद शहर से गॉंव तक की सत्तरकिलोमीटर दूरी केवल सात किलोमीटर रह जाती. उन्होंने यह काम शुरू करने का दृढ निश्चय किया.लेकिन काम आसान नहीं था. इसके लिए उन्हें उनका रोजी-रोटी देने का दैनंदिन काम छोडना पड़ता.उन्होंने अपनी बकरियॉं बेचकर छन्नी, हतोड़ा और फावडा खरीदा. अपनी झोपडी काम के स्थान के पासबनाई. इससे अब वे दिन-रात काम कर सकते थे. इस काम से उनके परिवार को दुविधाओंका सामना करना पड़ा, कई बार दशरथ को खाली पेट ही काम करना पड़ा. उनके आस-पास सेलोगों का आना-जाना शुरू था. गॉंव में इस काम की चर्चा हो रही थी. सब लोगों ने दशरथ को पागल मानलिया था. उन्हें गॉंव के लोगों की तीव्र आलोचना सहनी पडती थी. लेकिन वे कभी भी अपने निश्चय सेनहीं डिगे. जैसे-जैसे काम में प्रगति होती उनका निश्चिय भी पक्का होता जाता. लगातार बाईस वर्षदिन-रात किए परिश्रम के कारण १९६० में शुरु किया यह असंभव लगने वाला काम १९८२ में पूरा हुआ.
उनके अकेले के परिश्रम ने अजिंक्य लगने वाला पर्वत तोडकर ३६० फुट लंबा, २५ फुट ऊँचा और ३० फुटचौडा रास्ता बनाया. इससे गया जिले में के आटरी और वझीरगंज इन दो गॉंवों में का अंतर दस किलोमीटरसे भी कम रह गया.उनकी पत्नी फाल्गुनी देवी – जिसकी प्रेरणा से उन्होंने यह असंभव लगने वाला काम पूरा किया, उससमय उनके पास नहीं थी. लेकिन, गॉंव के लोगों से जैसे बन पड़ा, उन्होंने मिठाई, फल दशरथजी को लाकर दिए और उनके साथ उनकी सफलता की खुशी मनाई. युवक भी चॉंव से इस पर्वतको हिलाने वाले देवदूत की कहानी सुनने लगे है. गॉंव वालों ने दशरथ जी को ‘साधुजी’ पदवी दी है.दशरथ जी कहते है, ‘‘मेरे काम की प्रथम प्रेरणा है मेरा पत्नी पर का प्रेम. उस प्रेम ने ही पर्वततोडकर रास्ता बनाने की ज्योत मेरे हृदय में जलाई. करीब के हजारों लोग अपनी दैनंदिन आवश्यकताओंके लिए बिना कष्ट किए समीप के शहर जा सकेगे, यह मेरी आँखो के सामने आने वाला दृष्य मुझे दैनंदिनकार्य के लिए प्रेरणा देता था. इस कारण ही मैं चिंता और भय को मात दे सका.’’
दशरथ मांझी का ये काम कितना बड़ा था ये समझने के लिए जरा इस नक्शे पर गौर कीजिए. गहलौर की जरूरत की हर छोटी बड़ी चीज, अस्पताल, स्कूल सब इस वजीरपुर के बाजार में मिला करते थे लेकिन इस पहाड़ ने वजीरपुर और गहलौर के बीच का रास्ता रोक रखा था. लोगों को 80 किलोमीटर लंबा रास्ता तय करके वजीरपुर तक पहुंचना पड़ता था. दशरथ मांझी ने इस पहाड़ को अपने हाथों से तोड़ दिया और बना दिया एक ऐसा रास्ता जिसने वजीरपुर और गहलौर के बीच की दूरी को महज 2 किलोमीटर में समेट दिया.
दशरथ मांझी ने जिस पत्नी के लिए पहाड़ तोड़ने का करिश्मा किया था वो उसे देखने के लिए जीवित नहीं थी. साल 2007 में गॉल ब्लैडर के कैंसर से जूझते हुए दशरथ मांझी ने भी 73 साल की उम्र में दुनिया को अलविदा कह दिया लेकिन उनकी कहानी पत्थर पर लिखा इतिहास है जिसे बार बार दोहराया जाता रहेगा.
मांझी को अपने साथ हुए धोखे का मलाल रहा. उन्होंने इसकी शिकायत प्रधानमंत्री से करने की ठानी थी लेकिन दिल्ली जाने के लिए टिकट के बीस रुपये वो जुटा नहीं पाए. टीटी ने उन्हें ट्रेन से उतार दिया और तब मांझी पैदल ही दिल्ली के लिए चल पड़े. मांझी प्रधानमंत्री से तो नहीं मिल पाए लेकिन एक वो वक्त भी आया जब सत्ता उनके सम्मान में जुट गई.
नीतीश कुमार साल 2007 में बिहार मुख्यमंत्री थे और पहाड़ के बीच पक्की सड़क बनाने की मांग को लेकर नीतीश खुमार से मिलने पहुंचे थे. नीतीश ने उन्हें अपनी ही कुर्सी पर बिठा दिया.
दशरथ जी के इस कारनामे के बाद दुनिया उन्हें Mountain Cutter और Mountain Man के नाम से भी जानने लगी
written by:
– Bharat Rajpurohit